हम सभी दोस्तों के लिए एक ही ढिकाना था। और वो जगह हमारी गली के बाहर आया हुआ कांतिभाई का गल्ला था। कांतिभाई उनके गल्ले पर उनकी कपडे की इस्त्री करते थे और हमारे जेसे लोग वहा बेवजह बेठा करते थे। रोड पे इधर-उधर लडकियों और पब्लिक को देखा करते थे। सभी इकट्ठा होकर हसी मजाक भी करते थे। कांतिभाई को एक लड़का था उसका नाम मितेश था। जब कांतिभाई बहार गाव जाते थे तो मितेश गल्ले पर आ कर इस्त्री करता था। हम सभी बिना कामवाले लड़के पांच बजे कांतिभाई के गल्ले पर एकठे होते थे। बाद में हम कई कई तरह की बाते करते और बाद में जब भूख लगती तब हम सब लड़के एक एक करके घर चले जाते थे।
दोहपर को में ऊब गया था इसलिए में कांतिभाई के गल्ले पर गया। पर कांतिभाई नहि थे। उनका बेटा मितेश कपडे को इस्त्री कर रहा था
में ने पूछा "खा गये कांतिभाई कहा गये हे।"
मितेश ने बोले "बहार गाव गये हे कल आयेगे, कोई काम था क्या।"
में ने कहा "नहीं ऐसे ही पूछ रहा था।"
मितेश के साथ थोड़ी बात की। कोयेले हो ख़त्म गये थे। इस्त्री कोयेले से चलने वाली थी इसलिए वो कोयेले लेने बजार में गया और मुझे गल्ले पर बेठने को कहा।
मितेश कोयेला लेने गया। में गल्ले पर बेठा था। तभी उस रोड पे एक पोलिस गाड़ी आ रही थी। वो गड्डी गल्ले के पास आकर खड़ी रही। में सोचने लगा की पोलिस इधर क्यों आई हे। शिर में एक ही सोच चक्ररा रही थी पोलिस यह क्यों आई हे। बाद में जरा सा गभरा गया।
तभी गाड़ी में बेठे हुए इंस्पेक्टर साहबने मुजको बुला और कहा, "आप मितेश हे।"
में न कहा, "नहीं, में मितेश नहीं हु। में तो ऐसे ही यहाँ बेठा हु।"
साहेब ने फिर से पूछा "ये मितेश का दुकान हे। '
में ने कहा, "नहीं, ये दुकान कांतिभाई की हे। ''
क्यों की हम सभी लोंग कांतिभाई को ही जानते थे। मितेश को हम लोग मुना के नाम से ही जानते हे। उनकी बातो बातो में में कन्फ्युस हो गया।
बाद में गाड़ी में से एक कोन्स्टेबल उतरा और मेरी तरफ आया।
कोस्टेबल मुजको बोला "यहा आस पास कोई मितेश की दुकान तो नहीं हे ना। ''
तभी इस्पेक्टर साहब बोले "दुकान तो यही बोला था।"
हमारी चर्चा चल रही तब एक लड़का बाइक लेकर इस्त्री कराये हुए कपडे को लेने आया।
कोस्टेबल साहब उसको भी पूछने लगे की "आप यहाँ के गल्ले वाले किसी मितेश को जानते हे। उस लड़केने भी ना कहा। क्यों की मितेश कभी कभी ही गल्ले पर आता था। इसलिए सभी लोग कांतिभाई को ही जानते थे। हमारे बिच बातचीत चल रही थी तब मेरे मगज में लाइट हुई की मितेश तो कांतिभाई के लड़के का नाम हे।
में ने इन्स्पेक्टर साहेब को कहा "मितेश तो इस गल्लेवाले भाई का बेटा हे उसका नाम मितेश हे।"
इन्स्पेक्टर साहब ने किसी को फोन में बात कर रहे थे बाद में मुझे फोन में बात करने को बोले। उस फोन मे से कांतिभाई की आवाज आ रही थी। पर बराबर आवाज न आने से में कुछ भी नहीं सुन शका। में ने फोन में हा हा कर के फोन काट दिया।
तभी गाडी में बेठे हुए एक कोन्स्टेबल ने मुज को कहा, "बेटा, डर मत, हम यहा कपडे की इस्त्री कराने को कपडे देने आये हे।"
में ने भी उनसे कहा, "आपको कपडे प्रेस कराने थे तो ऐसा बोलना था। बिना वजह में डर गया.ये गल्ला कांतिभाई का हे और कांतिभाई बहार गये इसलिए उनका बेटा मितेश गल्ला चलता रहा हे। उसको सभी यहा मुना के नाम से जानते हे मितेश के नाम से कोई नहीं जानता इसलिए हो मिस्टेक गई। और आपको मितेश का नाम कहा हो गया। "
साहेब बोले "चलो ये कन्फ्यूजन तो हो दूर गया हे ये कपडे इस्त्री करेने को बोलना मितेश को, हम शाम को लेने आयेगे।।"
में ने बोला "जरुर कहुगा की साहब के कपडे को कड़क इस्त्री कर देना। ''
उन्होंने मुझे कपडे दिए मेने सारे कपडे गिन कर गल्ले में रख दिए।
इंस्पेक्टर साहब और कोन्स्टेबल साहब गाड़ी में बेठे और गाडी स्टार्ट कर क्र चले गये। में मन में ही हस पड़ा। जब मितेश कोयेला लेकर वापस आया तब ये घटना उसको बताई तो वो भी मेरी बात सुन कर हस पड़ा। बादमे में खाने के लिए घर तरफ जाने लगा।
दोहपर को में ऊब गया था इसलिए में कांतिभाई के गल्ले पर गया। पर कांतिभाई नहि थे। उनका बेटा मितेश कपडे को इस्त्री कर रहा था
में ने पूछा "खा गये कांतिभाई कहा गये हे।"
मितेश ने बोले "बहार गाव गये हे कल आयेगे, कोई काम था क्या।"
में ने कहा "नहीं ऐसे ही पूछ रहा था।"
मितेश के साथ थोड़ी बात की। कोयेले हो ख़त्म गये थे। इस्त्री कोयेले से चलने वाली थी इसलिए वो कोयेले लेने बजार में गया और मुझे गल्ले पर बेठने को कहा।
मितेश कोयेला लेने गया। में गल्ले पर बेठा था। तभी उस रोड पे एक पोलिस गाड़ी आ रही थी। वो गड्डी गल्ले के पास आकर खड़ी रही। में सोचने लगा की पोलिस इधर क्यों आई हे। शिर में एक ही सोच चक्ररा रही थी पोलिस यह क्यों आई हे। बाद में जरा सा गभरा गया।
तभी गाड़ी में बेठे हुए इंस्पेक्टर साहबने मुजको बुला और कहा, "आप मितेश हे।"
में न कहा, "नहीं, में मितेश नहीं हु। में तो ऐसे ही यहाँ बेठा हु।"
साहेब ने फिर से पूछा "ये मितेश का दुकान हे। '
में ने कहा, "नहीं, ये दुकान कांतिभाई की हे। ''
क्यों की हम सभी लोंग कांतिभाई को ही जानते थे। मितेश को हम लोग मुना के नाम से ही जानते हे। उनकी बातो बातो में में कन्फ्युस हो गया।
बाद में गाड़ी में से एक कोन्स्टेबल उतरा और मेरी तरफ आया।
कोस्टेबल मुजको बोला "यहा आस पास कोई मितेश की दुकान तो नहीं हे ना। ''
तभी इस्पेक्टर साहब बोले "दुकान तो यही बोला था।"
हमारी चर्चा चल रही तब एक लड़का बाइक लेकर इस्त्री कराये हुए कपडे को लेने आया।
कोस्टेबल साहब उसको भी पूछने लगे की "आप यहाँ के गल्ले वाले किसी मितेश को जानते हे। उस लड़केने भी ना कहा। क्यों की मितेश कभी कभी ही गल्ले पर आता था। इसलिए सभी लोग कांतिभाई को ही जानते थे। हमारे बिच बातचीत चल रही थी तब मेरे मगज में लाइट हुई की मितेश तो कांतिभाई के लड़के का नाम हे।
में ने इन्स्पेक्टर साहेब को कहा "मितेश तो इस गल्लेवाले भाई का बेटा हे उसका नाम मितेश हे।"
इन्स्पेक्टर साहब ने किसी को फोन में बात कर रहे थे बाद में मुझे फोन में बात करने को बोले। उस फोन मे से कांतिभाई की आवाज आ रही थी। पर बराबर आवाज न आने से में कुछ भी नहीं सुन शका। में ने फोन में हा हा कर के फोन काट दिया।
तभी गाडी में बेठे हुए एक कोन्स्टेबल ने मुज को कहा, "बेटा, डर मत, हम यहा कपडे की इस्त्री कराने को कपडे देने आये हे।"
में ने भी उनसे कहा, "आपको कपडे प्रेस कराने थे तो ऐसा बोलना था। बिना वजह में डर गया.ये गल्ला कांतिभाई का हे और कांतिभाई बहार गये इसलिए उनका बेटा मितेश गल्ला चलता रहा हे। उसको सभी यहा मुना के नाम से जानते हे मितेश के नाम से कोई नहीं जानता इसलिए हो मिस्टेक गई। और आपको मितेश का नाम कहा हो गया। "
साहेब बोले "चलो ये कन्फ्यूजन तो हो दूर गया हे ये कपडे इस्त्री करेने को बोलना मितेश को, हम शाम को लेने आयेगे।।"
में ने बोला "जरुर कहुगा की साहब के कपडे को कड़क इस्त्री कर देना। ''
उन्होंने मुझे कपडे दिए मेने सारे कपडे गिन कर गल्ले में रख दिए।
इंस्पेक्टर साहब और कोन्स्टेबल साहब गाड़ी में बेठे और गाडी स्टार्ट कर क्र चले गये। में मन में ही हस पड़ा। जब मितेश कोयेला लेकर वापस आया तब ये घटना उसको बताई तो वो भी मेरी बात सुन कर हस पड़ा। बादमे में खाने के लिए घर तरफ जाने लगा।
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